अनुशासन पर निबंध (Anushasan Par Nibandh) : अनुशासन का विद्यार्थी जीवन में क्या महत्व है, और Student Life में हर किसी को क्यों इसका पालन करना चाहिए? इसके लिए हम आपको नीचे विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध (Vidyarthi Aur Anushasan Par Nibandh) के जरिये बताने की कोशिश करेंगे।
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Anushasan Par Nibandh । अनुशासन पर निबंध
प्रासाद की चीड़स्थिरता और उसकी दृढ़ता जिस प्रकार आधारशिला की दृढ़ता पर आधारित है, लघु पादपों का विशाल वृक्षत्व जिस प्रकार बाल्यावस्था के सिंचन और संरक्षण पर आश्रित होती है।
उसी प्रकार मानव की सुख-शांतिमय, समृद्धशालीता का संसार छात्रावस्था पर आधारित होता है। यह अवस्था नवीन वृक्ष की मृदु और कोमल शाखा होती है, जिसे अपने मनचाही अवस्था में सरलता से मोड़ा जा सकता है, और एक बार जिधर आप मोड़ देंगे जीवन भर उधर ही रहेगी।
अवस्था प्राप्त विशाल वृक्ष की शाखाएं चाहे टूट भले ही जाए पर मुड़ती नहीं। क्योंकि, समय अनुभव और जीवन के सुख-दुख उन्हें कठोर बना देती है।
अतः मानव जीवन की इस प्रारंभिक अवस्था को सच्चरित्रता और सदाचारीता इत्यादि उपायों से सुरक्षित रखना प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य है।
छात्रावस्था अबोधावस्था होती है। इनमे न बुद्धि परिष्कृत होती है, और न विचार। अतः हम कह सकते हैं, कि माता-पिता तथा गुरुजनो के दबाव से पहले वह कर्तव्य का पालन सीखता है, और ऐसी स्थिति में हम उन्हें जिस सांचे में ढालना चाहेंगे, वह उस तरह से ढल जाएगा।
सामान्य रूप से कहे तो विद्या ग्रहण करने वाले विद्यार्थी कहलाते हैं। एक विद्यार्थी होने के नाते उसके जीवन का मूल्य उद्देश्य होता है : विद्या का उपार्जन अर्थात ज्ञानवर्धन करना।
दूसरे शब्दों में कहें तो – हम यह भी कह सकते हैं कि, विद्यार्थी का मतलब है : विद्या+अर्थी = विद्यार्थी, अर्थात विद्या को चाहने वाला।
यह विद्यार्थी जीवन एक तपस्वी साधक का जीवन होता है। विद्यार्थी के लिए अध्ययन ही तपस्या है। तपस्वी को जो आनंद ईश्वर के दर्शन से मिलता है, वही विद्यार्थी को परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर मिलता है।
विद्यार्थियों में पांच गुणों का होना आवश्यक के है —
- काक चेष्टा : जिस प्रकार कौवा अपने भोजन के लिए हर प्रकार का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार विद्यार्थी को अध्ययन में सफलता के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
- बकोध्यानं : जिस प्रकार बगुला अपने शिकार पर एकाग्रचित्त रहता है, उसी प्रकार विद्यार्थी को पढ़ने में दत्तचित्त रहना चाहिए।
- श्वाननिद्रा : विद्यार्थी को श्वान (कुत्ता) की भांति बहुत कम सोना चाहिए। उसे अति गहरे नींद में नहीं सोना चाहिए।
- अल्पाहारी : विद्यार्थी को भोजन कम मात्रा में करना चाहिए, क्योंकि अधिक भोजन करने से आलस्य आता है।
- गृह त्यागी : घर से दूर रहने पर पढ़ने में अधिक मन रमता है। इन सब गुणों वाला ही सच्चा विद्यार्थी होता है।
और अगर हम अनुशासन की बात करें तो, अनुशासन शब्द का अर्थ ही होता है : शासन (आदेश) या नियंत्रण के अनुसार चलना।
दूसरे शब्दों में कहें तो, माता-पिता तथा गुरुजनों की आज्ञा ज्यों का त्यों स्वीकार करना ही अनुशासन कहलाता है।
अनुशासन का शाब्दिक अर्थ है : शासन के पीछे चलना अर्थात गुरुजनों और अपने पथ-प्रदर्शको के नियंत्रण में रहकर नियमबध्द जीवनयापन करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना ही अनुशासन होता है।
अनुशासन विद्यार्थी जीवन का प्राण है, या फिर कहे तो सूक्तिकार के अनुसार शिष्टाचार अर्थात अनुशासन का अर्थ है : दूसरे के प्रति प्रेम और आदर का भाव तथा वह आचरण जिससे दूसरे व्यक्ति को असुविधा या कष्ट ना पहुंचे।
यहां तक कि सृष्टि के निर्माण करता जिस सृष्टि की रचना की है, वह इतनी नियम पूर्वक चलती है, कि उसके एक-एक क्षण का परिवर्तन निश्चित समय पर होता है। सूरज और चंद्रमा का चमकना, दिन और रात का होना, पेड़-पौधे पर फल-फूल लगना, पेड़ो में पत्ते का झड़ना और आना, ऋतुए का आना-जाना आदि।
यह सब कार्य इतने नियमित और निश्चित समय पर होते हैं, कि इन्हें देखकर हमें आश्चर्य होता है। सृष्टि का सभी कार्य निश्चित नियंत्रण या अनुशासन के अधीन चलता है, और हमें ऐसा भी देखने को मिलता है, कि यदि प्रकृति के किसी कार्य के होने में थोड़ी-सी भी अनियमितता या अनियंत्रणता होती है, तो कैसा तबाही मचाता है।
जैसे : बाढ़ का आना, भूकंप का होना, सुनामी आना, सुखार पड़ना, ज्वालामुखी फटना आदि। इससे हमें यह अनुमान लग जाती है, कि सृष्टि के हर क्षेत्र में अनुशासन का होना कितना जरूरी है।
हमारे ख्याल से जिस प्रकार प्रकृति में अनुशासन का होना जरूरी है। उसी प्रकार मानव-जीवन में भी अनुशासन का होना काफी मायने रखता है। खासकर विद्यार्थियों में तो इसका होना और भी जरूरी है, क्योंकि वे ही हमारे समाज के भावी निर्माता हैं।
अनुशासन के दो रूप हैं : बाह्य और आंतरिक। शास्त्रीय, सामाजिक तथा शासकीय नियमों का पालन करना, गुरुजनों के उपदेश और आदेश को मानना बाह्य अनुशासन है। मन की समस्त वृत्तियों और इंद्रियों पर नियंत्रण आंतरिक अनुशासन है।
यह अनुशासन का श्रेष्ठ रूप है। ठीक इसी प्रकार जब मानव नियंत्रित जीवन व्यतीत करता है, तो दूसरों के लिए वह आदर्श व अनुकरणीय बन जाता है।
यद्यपि जीवन के हर पहलू में अनुशासन का बड़ा भारी महत्व है; तथापि विद्यार्थी जीवन में इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। विद्यार्थी को अपने भावी जीवन के निर्माण की तैयारी करनी होती है, जो एक काफी कठिन तपस्या के सामान होती है।
जो कि हम पहले ही बता चुके हैं, कि इस तपस्या में सफल होने के लिए विद्यार्थी को अनुशासित जीवन व्यतीत करना अनिवार्य है।
इस प्रकार अनुशासन एक व्यापक तत्व है, जो जीवन के सभी क्षेत्रों को अपने में समा लेता है। संयम और अनुशासन छात्र जीवन के मूल स्तंभ हैं। साथ ही विद्यार्थी जीवन के लिए अनुशासन ही सफलता की एकमात्र कुंजी है। इसके अभाव में जीवन व्यवस्थित रीति से नहीं चल सकता।
प्राचीन समय में विद्यार्थी जीवन और शिष्टाचार (Student Life and Courtesy in Ancient Time)
मनुष्य के जीवन का वह समय जो शिक्षा प्राप्त करने में व्यतीत होता है, विद्यार्थी जीवन कहलाता है।
यूं तो मनुष्य जीवन के अंतिम क्षणों तक कुछ-न-कुछ शिक्षा ग्रहण करता ही रहता है, परंतु उसके जीवन में नियमित शिक्षा की ही अवधि विद्यार्थी जीवन है।
तो आइए हम बात करते हैं, प्राचीन समय के विद्यार्थी जीवन एवं शिष्टाचार के बीच संबंध के बारे में —
जैसा कि हम सभी जानते हैं, कि प्राचीन समय में ऋषि-मुनियों की शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी जीवन की एक निश्चित अवधि थी। मनुष्य का संपूर्ण जीवन सौ वर्षों का माना जाता था।
हमारे भारतीय ऋषि-मुनियों और आचार्यों द्वारा पूरे जीवन को कार्य की दृष्टि से चार भागों में बांटा गया था : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। यह पहला ब्रह्मचर्य काल ही विद्यार्थी जीवन माना जाता था, और ब्रह्मचर्य आश्रम को ही जीवन का मूल आधार माना जाता था।
इसमें विद्यार्थी भावी जीवन के निर्माण के लिए कठोर साधना करते थे। गुरु का अपना चरित्र बड़ा ही प्रभावशाली और अनुकरणीय होता था। विद्यार्थी उसकी संरक्षण में रहकर पूर्ण अनुशासन से जीवन व्यतीत करना सीखता था।
उसको अपने आहार-विहार, परिधान-निद्रा आदि सब पर पूर्ण नियंत्रण रहता था। बालक के मन रूपी हीरे को साधना मंत्र द्वारा तराशा और चमकाया जाता था। ताकि बड़ा होकर वह समाज को प्रकाश दे, उसे उचित मार्ग पर ले जा सके।
यही कारण था, कि उस समय का विद्यार्थी सच्चरित्र, गुरु में अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाला तथा बड़ों की आज्ञा का पालन करने वाला होता था, और अपने भावी जीवन में राष्ट्र की उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान देता था। इस प्रकार प्राचीन समय के विद्यार्थी जीवन में शिष्टाचार का बहुत बड़ा महत्व था।
वर्तमान युग में विद्यार्थियों में अनुशासन हीनता के परिणाम
अगर हम आज विद्यार्थियों में शिष्टाचार होने की बात करें तो शायद यह हमारी ही बेवकूफी होगी, क्योंकि आज के वर्तमान युग के विद्यार्थियों और अध्यापकों में तो शिष्टाचार के बदले भ्रष्टाचार ही भर गया है, और स्थिति ऐसी आ गई है, कि आज के समय में न सिर्फ विद्यार्थियों में बल्कि अन्य मानवीय पहलुओं में भी अनुशासनहीनता अपनी चरम सीमा पर जा पहुंची है।
क्या घर, क्या स्कूल, क्या बाजार, क्या मेले और क्या उत्सव, क्या गलियां और क्या सड़के; जीवन के हर जगह पर अनुशासनहीनता ही नजर आती है।
अगर हम आज के विद्यार्थियों की बात करें तो आज के विद्यार्थी ऐसे हैं, कि वे अपने माता-पिता द्वारा दिए गए सदुपदेशों को अस्वीकार कर वे अपने ही उपदेश पर चलना प्रारंभ कर देते हैं।
उदाहरण स्वरूप ही ले लीजिए : अगर पिता ने कहा ! बेटा शाम को घूम कर जल्द घर लौट आना, तो पता चलता है, कि बेटा साहब 12:00 बजे रात की शो देखकर घर आए।
आज के बच्चे को अगर माता-पिता मना भी कर दे, तो भी वह बच्चा उसी के साथ उठता-बैठता है, जिसके साथ उसका खूब मन लगता है।परिणाम यह होता है, कि उसमें कुसंगतिजन्य दूषित संस्कार उत्पन्न हो जाते हैं।
कॉलेज व स्कूलों की चारदीवारी में तो विद्यार्थियों के लिए अनुशासन जैसी कोई वस्तु है, ही नहीं। परिणाम यह होता है, कि कक्षा में शिक्षक पढ़ा रहे होते हैं, और कुछ विद्यार्थी बाहर गेट पर बनवाड़ी की दुकान पर खड़े-खड़े सिगरेट में दम लगा रहे होते हैं।
जब मन में आया कक्षा में आ बैठे, जब मन में आया उठकर चले आए, अगर मन इतने पर भी मचली तो साइकिल उठाई और सिनेमा तक हो आई। तस्वीरों को देखकर मन तो बहल ही जाता है।
अगर अध्यापक ने कुछ कहा तो उस पर बिना उचित-अनुचित विचार किए, जो मन में आया कह दिया अगर ज्यादा बात बढ़ी तो फिर आगे की तो आप सभी जानते ही हैं।
इतना ही नहीं अनुशासनहीनता की नग्न नृत्य तो हमें तब देखने को मिलती है, जब कोई सभा हो, मीटिंग हो, कवि सम्मेलन या कोई एकांकी नाटक आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम हो रहा हो।
विद्यार्थियों की उद्दंडता और उच्छलड़ता के कारण आज कोई भी सामुदायिक कार्यक्रम आप सफलतापूर्वक नहीं कर सकते।
आजकल की परीक्षा तो अध्यापकों के लिए जानलेवा ही बन गई है; या तो छात्रो को मनचाही नकल करने दीजिए या फिर हाथापाई को तैयार हो जाइए।
सामूहिक मेला और उत्सवो में विद्यार्थियों की चरित्रहीनता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। किसी भी महिला के साथ अभद्र एवं अशोभनीय व्यवहार करना साधारण सी बात हो गई है।
आजकल के छात्रों का मन तो इतना आसमान चढ़ गया है, कि वे जहां चाहे दंगे शुरू कर दिए। लूटमार करवा दिए। किसी को भी चौराहे पर खड़ा कर पिटवा दिए।
अपने उदण्ड एवं उच्छ्खल व्यवहार के कारण आज के समय में विद्यार्थी सर्वत्र निंदा के पात्र होते जा रहे हैं। कहां गया गुरु और शिष्य का वह पवित्र स्नेह और कहां गई वह सच्चरित्रता?
छात्रों की अनुशासनहीनता राष्ट्रीय स्तर पर एक विषम समस्या बन गई है। इस प्रकार देश के भावी नागरिक अगर ऐसे ही रहे तो निश्चित ही हमारे देश की यह पवित्र भूमि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो कभी और अवश्य ही गड्ढे में जा गिरे और ऐसा गिरेगा कि युगो तक नहीं निकल पाएगा।
छात्रो में अनुशासनहीनता के कारण
आज के वर्तमान समय में छात्रो में अनुशासनहीनता के कारण के विषय में अगर मैं अपने ख्याल से देखती हूं, तो हमें ऐसा लगता है, कि इसका पहला कारण माता-पिता की ढीलाई है; क्योंकि इस बात को हम सभी अच्छी तरह जानते हैं, कि माता-पिता के संस्कार ही बच्चे पर पड़ते हैं।
बच्चों के जीवन की प्राथमिक पाठशाला की शुरुआत तो उनके घर से ही होता है, अर्थात उसका पहला गुरु उनके माता-पिता होते हैं।
अगर उसके माता-पिता ही उसे अच्छे संस्कार ना दे तो बाहर के स्कूल व कॉलेजों में वह क्या अच्छा संस्कार प्राप्त करेगा। परिणाम यह होता है, कि बच्चे आगे चलकर यह समझ ही नहीं पाते हैं, कि क्या सही है, और क्या गलत?
ऐसी स्थिति में वह अपने मन के मौजी हो जाते हैं, और जो मन में आता है, वही करते हैं।
अपने बच्चे की ऐसे गंदे व्यवहार से जब मां-बाप तंग आ जाते हैं, तब वह बिना किसी बात पर विचार किए अध्यापको और कॉलेजों की आलोचना करना शुरू कर देते हैं।
कभी-कभी राजनीतिक तत्व, विद्यार्थियों को भड़काकर नगर, कॉलेज में उपद्रव खड़ा करवा देते हैं। जिससे अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है।
इस प्रकार अगर हम कहे तो हमारा कहना हर मायने में सही होगा कि अगर हमारे बड़े ही अनुशासनहीन हैं, तो वे हमें क्या अनुशासन सिखाएंगे!
अनुशासन स्थापित करने के उपाय
जैसा कि हम सभी जानते हैं, आज छात्रों की अनुशासनहीनता देश के लिए एक ज्वलंत समस्या है। अतः इस समस्या के समाधान के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं :
देश में अनुशासन की पुनः स्थापना करने के लिए यह आवश्यक है, कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक और चारित्रिक शिक्षा पर विशेष बल देना चाहिए। जिससे छात्रों को अपने कर्तव्य और और कर्तव्य का ज्ञान हो सके।
हमारे देश में प्रजातंत्र शासन व्यवस्था है, जिसमें सत्ता प्रजा के हाथों में होती है। उसे ही राष्ट्र निर्माण के लिए भावी नीतियों का निर्धारण करना है।
इसके लिए अनिवार्य है, कि आज का विद्यार्थी अनुशासित होकर आगे बढ़े ताकि उसमें सच्चरित्रता, धर्य, साहस, उत्साह, विश्वास तथा कर्तव्य परायणता की भावना जागे।
सैनिक अनुशासन को सदा से ही आदर्श अनुशासन माना गया है, परंतु उसका मूल आधार भय और दंड व्यवस्था होता है।
प्रजातंत्र की सफलता के लिए जनता में उच्च स्तर का अनुशासन होना जरूरी है। अतः विद्यार्थी जीवन में ही व्यक्ति में उसकी नींव पर जानी चाहिए। छात्रों में अनुशासन (Anushasan Par Nibandh) की स्थापना भय या कठोर दंड व्यवस्था से नहीं, अपितु उसके हृदय में सोए हुए सद्-विचारों को जगा कर की जा सकती है।
आज के समय में माता पिता को बचपन से ही अपने बच्चों के कार्यों पर करी दृष्टि रखनी चाहिए; क्योंकि गुण और दोष संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं। छात्र अनुशासनहीनता को रोकने के लिए इस बात की भी आवश्यकता है, कि शिक्षण संस्थाओं तथा छात्रों को राजनीति का शिकार होने से बचाया जाना चाहिऐ।
उपसंहार (Conclusion)
उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है, कि अनुशासन के अभाव में छात्र एवं छात्राओं का मानसिक तथा चारित्रिक विकास संभव नहीं हो सकता। समाज एवं राष्ट्र के विकास के लिए छात्रों का अनुशासित होना आवश्यक है।
यह निर्विवाद एवं कटु सत्य है, कि आज छात्र-अनुशासनहीनता देश और समाज के लिए गंभीर एवं भयानक समस्या बनी हुई है।
वस्तुतः आज बताने की जरूरत है, कि यदि सभी अशिष्ट ही हो जाएंगे तो समाज का क्या होगा?
अतः विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता दूर करने के लिए इस बात की जरूरत है, कि मां-बाप उनके समक्ष आर्दश प्रस्तुत करें। राजनेता, छात्रो को अपना हथियार न बनाएं और शिक्षक पूरी निष्ठा से उन्हें शिक्षा दे।
कहने का तात्पर्य है, कि अनुशासन जीवन को इतना आदर्श बना देता है, कि अनुशासित व्यक्ति मे दूसरों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट गुण दिखाई पड़ता है।
उसका उठना-बैठना, बोलना, व्यवहार करना आदि प्रत्येक क्रिया में एक विशेष व्यवस्था या नियम की झलक मिलती है। अपनी समस्त वृत्तियों पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है।
संसार में वह कुछ विशेष कर सकने की क्षमता रखता है। उसका सब ओर सम्मान होता है, तथा उसके चरण चूमती दिखाई देती है।
अनुशासन की प्रकृति कठोर दिखाई पड़ती है, पर वास्तविकता यह है, कि उसकी कठोरता शिष्ट-स्वीकार से दयालुता में परिवर्तित हो जाता है और उससे व्यक्ति धन्य हो जाता है।
अगर आज के छात्र, जो देश के भावी कर्णधार हैं, अपने को अनुशासित रखने में सफल हो सके तो इसमें उसका भी कल्याण होगा तथा वे अपने समाज व राष्ट्र का भी कल्याण कर सकेंगे।
अनुशासन की नींव पर ही सफलता का विशाल महल बन सकता है। इस प्रकार निश्चित तौर पर हम कर सकते हैं, कि अनुशासित होकर ही जीवन में सुख, शांति और ऐश्वर्य की उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है।
उम्मीद है, कि Vidyarthi Aur Anushasan Par Nibandh आपको पसंद आया होगा।
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