Biography of Swami Vivekananda in Hindi । स्वामी विवेकानंद की जीवनी

स्वामी विवेकानंद की जीवनी (Biography of Swami Vivekananda in Hindi) : दोस्तों, आज हमने भारत के इस तपोभूमि पर जन्मे एक ऐसे अवतारी चेतना के बारे में काफी सरल शब्दों में लिखने का प्रयास करी हूँ, जिन्होंने ना केवल भारतीय इतिहास (Indian History) के पन्नों में अपना स्थान ग्रहन किया है, बल्कि विश्व इतिहास के पृष्ठों में भी अपना जगह बनाने से नहीं चूके।

ना जाने हमारे देश की इस पवित्र भूमि पर कितने महान आत्मा ने जन्म लिया, उन्हीं महान आत्माओं में से एक थे : स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda).

अपने कर्मों के सहारे वे इतनी प्रतापी, लोकप्रिय हो गए कि दुनिया उन्हें कभी चाह कर भी नहीं भूल सकती है। तो आइए जानते हैं; भारतवर्ष के पवित्र भूमि पर जन्मे इस महान आत्मा के बारे में कुछ रोचक तथ्य और रहस्यमयी बातें।

अपने बचपन के दिनों में स्वामी विवेकानंद। Childhood of Swami Vivekananda in Hindi

बचपन का नाम नरेंद्र दत्त से संबंधित होने वाले इस अवतारी चेतना का जन्म सुबह 6:35 पर सूर्योदय से पहले मकर संक्रांति के दिन 12 फरवरी 1863 को पिता श्री विश्वनाथ दत्त के घर और माता भुवनेश्वरी देवी के गर्भ से कोलकाता (भारत) गोरेमोहन मुखर्जी स्ट्रीट (ब्रिटिश शासनकाल में भारत की राजधानी थी) के एक सुसंस्कृत एवं उत्सव में कायस्थ परिवार में हुआ था।

पिता पेशे से कोलकाता उच्च न्यायालय (Calcutta High Court) में एक चर्चित और कुशल वकील थे, और माता भुवनेश्वरी देवी भी सर्व धर्म को मानने वाली महिला थी। इतना ही नहीं देवताओं में वह शिव के उपासक थी। धर्म-कर्म में काफी आस्था होने के कारण वह हमेशा से अपनी विचारों और भावनाओं से काफी शुद्ध रहती थी और दूसरे को भी सही कर्म करने की सलाह देती थी।

अपने बाल्यावस्था से ही नरेंद्र दत्त में अपूर्व मेघा शक्ति एवं आध्यात्मिक गुण विद्यमान थे। जो कालांतर में और भी विकसित होते रहे।

वैसे उनकी माताजी भी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला होने के कारण उन्हें धार्मिक ग्रंथों से जुड़ी कई धार्मिक रहस्यमयी किस्से-कहानियां जैसे : महाभारत क्यों हुई? उनके पीछे का इतिहास ,रामायण क्यों लिखा गया? उनके क्या कारण थे? आदि कहानियां सुनाया करती थी।

यह भी एक कारण थे, नरेंद्र दत्त के जीवन में धार्मिक ग्रंथों के प्रति रुचि बढ़ाने का। ज्यों-ज्यों नरेंद्र दत्त बड़े होते गए, त्‍यों-त्यों उनमें धार्मिक चीजों को जानने की जिज्ञासा बढ़ती गई।

नरेंद्र दत्त के परिवार में ना केवल नरेंद्र दत्त सन्यासी इंसान बने बल्कि उनके दादाजी संस्कृत और फारसी के एक सुप्रसिद्ध विद्वान रहे थे।दगचिरण दत्ता जी अपने जीवन के शुरुआती दौर से ही उनका ईश्वर ध्यान की ओर झुकाव रहा।

अपने जीवन की 25 वर्ष जो कि युवा अवस्था की अवधि होती है, उसमें ही अपना सारा घर परिवार छोड़ सत्य की खोज में निकल गए और एक संन्यासी के भांति अपना जीवन व्यतीत करने लगे। इतिहास के पन्नों में उनका नाम ज्यादा निखर नहीं सका, यह बात अलग है।

परंतु इससे इतनी बात तो पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है, कि नरेंद्र दत्त के दादाजी, पिता और उनकी मां के धार्मिक प्रगतिशीलता व तर्कसंगत रवैया ने उसकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की। कहते हैं, ना अगर बाप सच्चे और अच्छे व्यक्ति हो, तो निश्चित रूप से उसका बच्चा भी सच्चा और अच्छा होता है।

कुछ ऐसा ही नरेंद्र दत्त के साथ भी हुआ। जहां उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्ता पाश्चात्य के सभ्यता में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे, वहीं उनके घर में जन्मे उनके ही पुत्र नरेंद्र दत्त पाश्चात्य जगत को भारतीय तत्वाधान का संदेश सुनाने वाला विश्व का महान गुरु ही बन बैठा।

नरेंद्र दत्त अपने 9 भाई-बहनों में से एक थे। वे अपने बाल्यावस्था में काफी नटखट और शरारती किस्म के थे। नरेंद्र दत्त एक ऐसे महान आत्मा के रूप में विश्व के सामने उभर कर आए, जिन्होंने अपने माता-पिता के नामों को भी अमर बना दिया।

जैसा कि हम देखते हैं, जब कभी नरेंद्र दत्त अर्थात विवेकानंद का नाम आता है, हमें उनके माता-पिता के बारे में भी जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है।

बाद में नरेंद्र दत्त के बहुत सारी संस्कारों, व्यवहारों और नीतियों को देखते हुए रोमा रोलाँ ने नरेंद्र दत्त के विषय में कहा था, कि उनका बचपन और युवा अवस्था के बीच का काल योरोप के पुनरूञ्जीवनयुग के किसी कलाकार राजपूत के जीवनप्रभात का स्मरण दिलाता है। इस प्रकार कहे तो नरेंद्रदत्त का बाल्यावस्था काफी सुख सुविधा और खुशियों से भरी रही।

स्वामी विवेकानंद की शिक्षा-दीक्षा। Education of Swami Vivekananda in Hindi

दुनिया के अन्य माता -पिता के तरह ही नरेंद्र दत्त अर्थात स्वामी विवेकानंद के माता-पिता अपने पुत्र को पढ़ा लिखा कर कुछ बड़ा बनाना चाहते थे। यही कारण है, कि उन्होंने नरेंद्र दर्द को 8 वर्ष की आयु में ही स्कूल में दाखिला करा दिया।

स्वाभाविक सी बात है, कि उस समय नरेंद्र दत्त काफी छोटी आयु के होंगे, क्योंकि हमारे भारतीय समाज में 8 वर्ष की आयु बहुत कम होती है।

परंतु इतनी सी आयु में रहते हुए भी नरेंद्र दत्त ने अपने कर्तव्य अनुसार अपने माता-पिता के आज्ञा का पालन बिना किसी संदेह का किया। जिस समय उन्होंने स्कूल में दाखिला लिया, वो सन् 1871 का समय था।

जहां उन्होंने दाखिला लिया और स्कूल भी गए उसका नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर मेट्रोपॉलिटन संस्थान (Ishwar Chandra Vidyasagar Metropolitan Institute) था। वर्ष 1877 का समय था, जिसमें उनका परिवार रायपुर चला गया। परंतु कुछ समय बाद वे पुन: अपने परिवार के साथ कोलकाता लौट आए।

कोलकाता लौटने के पश्चात सन् 1879 ई० में, जिस समय नरेंद्र दत्त की आयु मात्र 16 वर्ष की थी, उस समय में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज कोलकाता की प्रसिद्ध कॉलेजों में से एक थी, उसमें प्रवेश पाने के लिए एंट्रेंस एग्जाम दिया और अच्छे अंको से प्रथम श्रेणी में पास किए। इतना ही नहीं वे तो प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रथम श्रेणी से पास करने वाले प्रथम छात्र भी बन गए।

इन बातों से अंदाजा लगाया जा सकता है, कि वह अपने विद्यार्थी जीवन में सर्वाधिक लोकप्रिय और जिज्ञासु छात्र रहे होंगे। वह खासकर हिंदू ग्रंथों को पढ़ने और नई-नई चीजों को जानने की जिज्ञासा रखते थे।

इसी जिज्ञासा ने तो उन्हें दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, साहित्य, वेद, उपनिषद, भागवतगीता, रामायण, महाभारत, पुराण सहित अन्य विषयों का भी महान ज्ञाता बना दिया।

नरेंद्र हमारे भारतीय संस्कृति के संगीत के क्षेत्र में शास्त्रीय संगीत का भी काफी गहराई में जाकर प्रशिक्षण प्राप्त किए। उन्होंने न सिर्फ शिक्षा क्षेत्र में रुचि लिया बल्कि शारीरिक व्यायाम व खेलों में भी उन्होंने नियमित रूप से भाग लिया।

नरेंद्र ने विदेशी सभ्यता और संस्कृति को भी जानने का प्रयास किया। यही कारण है, कि यूरोपीय इतिहास, पश्चिमी दर्शन और पश्चिमी तर्क का अध्ययन उन्होंने जनरल असेंबली इंस्टिट्यूशन में किया। उन्होंने डिग्री प्राप्त करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।

इसी वजह से उन्होंने कला स्नातक की डिग्री सन् 1884 में तथा ललित कला की डिग्री सन् 1881 में उन्होंने प्राप्त की थी।

उनकी जिज्ञासा अभी तक समाप्त होने की नाम ही नहीं ले रही थी। अब उन्होंने कई महान व्यक्तियों के जीवन और उनके कार्यों का भी अध्ययन करना शुरू कर दिया।

उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं। जैसे : जॉन स्टूअर्ट मिल, डेविड ह्यूम, बारूक स्पिनोजा, इमैनुएल कांट, जॉर्ज डब्लू एव हेजल, ऑगस्ट कॉम्टे, आर्थर स्कुपइन्हार, जोहान गोरलिव फिच और चार्ल्स डार्विन आदि के कामों और व्यक्तिगत जीवन का अध्ययन किया।

उन्होंने बंगाली सहित्य और संस्कृत ग्रंथ के अध्ययन के साथ-साथ पश्चिमी दार्शनिकों के विषय में भी अध्ययन किया।

हटबर्ट स्पेन्सर के नास्तिकवाद का भी उन पर गहरा असर पड़ा। वे उनके विकास के सिद्धांत से काफी लगाव रखते थे। नरेंद्र दत्त उनके विकास सिद्धांत से इतनी अच्छी तरह मंत्रमुग्ध हो गए थे, कि वे हरबर्ट स्पेंसर केशवानी खुद को बनाना चाहते थे। उन्होंने स्पेन्सर की शिक्षा किताब को भी सन् 1861 ई० में भी परिभाषित किया।

उनकी जिज्ञासा और महानता का विश्लेषण करते हुए कई विद्वानों ने उनकी तारीफ करते हुए उन्हें अपने शब्दों में परिभाषित किया है। जिसमें से कुछ इस प्रकार है।

उनकी जिज्ञासा और महानता को देखते हुए उस समय के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं शिक्षाविद् William Hastie (महासभा संस्था के प्रिंसिपल) ने अपने सुनहरे अक्षरों में लिखते हुए कहा है, कि

“नरेंद्र वास्तव में काफी होशियार है, क्योंकि मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाके की यात्रा की है, लेकिन उनके जैसी प्रतिभा वाला एक भी बालक कहीं नहीं दिखा, यहां तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।”

यही कारण है, कि अनेक बार उन्हें श्रुतिधार विलक्षण स्मृति वाला एक व्यक्ति भी कह कर बुलाया गया।

अपने गुरु अर्थात् रामकृष्ण परमहंस से स्वामी विवेकानंद की भेंट

Ramkrishna Paramhans

ऐसा कहा जाता है, कि नरेंद्र दत्त एक अच्छा छात्र और हिंदू धर्म के ग्रंथों में रुचि रखने वाले थे। जब उन्होंने स्नातक की परीक्षा पास की और पूर्ण रूप से अपने योवनावस्था में समा गए। तब उनका झुकाव नास्तिक प्रवृत्ति की ओर होने लगा। परंतु शीघ्र ही उनका मिलन एक ऐसे महान आत्मा या फिर कहे तो परम ज्ञानी से हो गई। जिन्होंने उनमें शीघ्र ही पुनः आध्यात्म के प्रति श्रद्धा की जागृति कर दी।

अपने यौवनावस्था से ही भारतीय संस्कृति में ईश्वर के प्रति उनका दृढ़ आस्था, पाश्चात्य दार्शनिको के निरीश्वर भौतिकवाद में विश्वास रखने के कारण अपने जीवन के इस अवस्था में उन्हें काफी गहरे द्वंद से गुजरना पड़ा।

परंतु सन् 1881 के दौड़ में नरेंद्र की मिलन रामकृष्ण परमहंस से हुई, जिन्हें बाद में नरेंद्र दत्त ने अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया।

रामकृष्ण परमहंस की पहली मुलाकात ने ही नरेंद्र के जीवन में एक नया मोड़ ला दिया। रामकृष्ण परमहंस जैसे जोहड़ी ने ही नरेंद्र जैसे रत्न को समय रहते परख लिया।

फिर क्या था?

अब रामकृष्ण परमहंस भी जौहरी के तरह अपने रत्न को परख कर उसे और भी कीमती बनाने में लग गए और रामकृष्ण परमहंस जैसे दिव्य महापुरुष के स्पर्श मात्र ने नरेंद्र को इतनी कीमती रत्न बना दिया कि आज के आधुनिक दौर में भी उन्हें खरीदने वाला या उनका स्थान ग्रहण करने वाला पैदा नहीं हो पाया है।

रामकृष्ण परमहंस ने अपने रत्न अर्थात नरेंद्र दत्त को शुरुआती दौर में काफी स्वच्छता, निष्ठा से अपनी योग्यता के बल से उन्हें इस बात का विश्वास दिलाया की वास्तव में ईश्वर हैं, और मनुष्य अपने धर्म-कर्म, सत्य, निष्ठा, साधना आदि से उन्हें पा सकता है।

बात सन् 1881 ई० की है, जब स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का शिष्यता स्वीकार कर 6 वर्षो के निरंतर गुरु उपदेश से विवेकानंद लाभान्वित होते रहे।

रामकृष्ण परमहंस ने उसे इस बात की शिक्षा दी, कि सेवा कभी दान नहीं बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सच्ची आराधना होनी चाहिए।

इतना ही नहीं, उन्होंने अपने शिष्य नरेंद्र नाथ दत्त को इस संसार रूपी सागर में सर्वव्यापी परम सत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में नरेंद्र का मार्गदर्शन किया।

उन्होंने अपने गुरु से प्राप्त इस उपदेश को अपने जीवन का प्रमुख दर्शन बना लिया। बात उस समय की है, जब विलियम हस्ति जनरल असेंबली संस्था में विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता पर्यटन पर भाषण दे रहे थे।

इसी दौरान जब वे कविता का एक शब्द Trance का अर्थ समझा रहे थे, उसी समय उन्होंने अपने विद्यार्थियों से कहा कि वे इसका मतलब जानने के लिए दक्षिणेश्वर में स्थित राम कृष्ण से मिले।

उनके द्वारा कही गई बात से सभी विद्यार्थी जिसमें नरेंद्र दत्त भी शामिल थे, रामकृष्ण परमहंस से मिलने का ठान लिया। रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में पुजारी थे।

तब जाकर 1881 ई० में सभी विद्यार्थियों ने व्यक्तिगत रूप से रामकृष्ण परमहंस से मिले। इस पहली मुलाकात में ही रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र दत्त को अपने साथ रख लिया और जब रामकृष्ण परमहंस अपने मित्र सुरेंद्रनाथ के घर पर अपना भाषण कहे या फिर प्रवचन देने जा रहे थे, उस समय भी उन्होंने नरेंद्र दत्त को अपने साथ ले गए।

परांजप के अनुसार, उस मुलाकात में रामकृष्ण ने युवा नरेंद्र दत्त को कुछ गाने के लिए कहा था, और उनके गाने की कला से मोहित होकर उन्होंने नरेंद्र को अपने साथ दक्षिणेश्वर चलने को कहा।

वर्ष 1884 का समय था, जिसमें अचानक नरेंद्र के पिता की मृत्यु हो गई और संपूर्ण परिवार दिवालिया सा बन गया था। साहूकार दिए हुए कर्जे को वापस करने की मांग कर रहे थे, और उनके रिश्तेदार ने भी उनके पैतृक घर से उनके अधिकार को हटा दिया था।

ऐसी स्थिति में नरेंद्र काफी विचलित हो गए थे। परंतु अपने आप को संभालते हुए असफलतापूर्वक वे कोई काम ढूंढने में लग गए और जब भगवान के अस्तित्व का प्रश्न उनके सामने निर्मित हुआ, तब रामकृष्ण के पास उन्हें संतुष्टि मिली और उन्होंने दक्षिणेश्वर जाना आना बढ़ा दिया।

एक दिन रामकृष्ण ने नरेंद्र से उनके परिवार की आर्थिक भलाई के लिए माता काली के सामने प्रार्थना करने को कहा और नरेंद्र ने भी उनके बातों को स्वीकार करते हुए करीब तीन बार मंदिर गए।

परंतु वे हर बार अपनी जरूरत की पूर्ति करने के बजाए खुद को सच्चाई के मार्ग पर ले जाने और लोगों की भलाई करने की प्रार्थना करते थे।

मंदिर जाने के क्रम में ही एक बार नरेंद्र को भगवान की अनुमति की एहसास हुई और तब से वे भी अपने गुरु रामकृष्ण के साथ दक्षिणेश्वर मंदिर में रहने लगे।

बात सन् 1885 की है, जब पता चला कि रामकृष्ण को गले का कैंसर हुआ और इस वजह से उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा और बाद में कोसिसपोरे गार्डन जाना पड़ा।

परंतु रामकृष्ण जानते थे, कि यह मेरे जीवन का अंतिम क्षण है, तब उन्होंने नरेंद्र को अपने मठवासियों का ध्यान रखने को कहा और कहा कि मैं तुम्हें एक गुरु के रूप में देखना चाहता हूं; और 16 अगस्त 1886 को कोसिसपोरे सुबह के समय उन्होंने अपना अंतिम सांस लिया।

गुरु के मृत्यु से नरेंद्र को कुछ समय के लिए तो काफी बड़ा धक्का लगा।

किंतु विचलित ना होकर उन्होंने सन्यास आश्रम में अपना पदार्पण किया तथा अपने गुरु की शिक्षा को प्रसारित और प्रचारित करने का निश्चय किया और जीवन के आलोक को जगत के अंधकार में भटकती प्राणियों के समक्ष अपने को उपस्थित करने के लिए पैदल ही उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की और बाद में चलकर विश्व व्याख्यात हुए।

नरेंद्र दत्त से विवेकानंद बनने की कहानी। Story of Narendra Dutt from Vivekananda in Hindi

आपको बता दें, कि जिन्हें आज की पूरी दुनिया विवेकानंद (Vivekananda in Hindi) के नाम से जानती हैं। वास्तव में ये नाम उनके माता-पिता ने नहीं रखा था।

बात सन् 1893 की है, एक संन्यासी जीवन धारण करने के बाद जब वे इस संसार रूपी सागर के अंधकारमय रूपी जगहों में भटकने वाले प्राणी को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए अपने गुरु के उपदेशों पर अध्यात्म और वेद-ग्रंथों का प्रचार-प्रसार करने बेंगलुरु मठ से पूरे भारत की कोने-कोने की पैदल यात्रा पर निकले।

इसी बीच 1891 ई० को माउंट आबू में खतड़ी के राजा अजीत सिंह से उनकी पहली मुलाकात हुई और पहली मुलाकात में ही राजा अजीत सिंह नरेंद्र दत्त के बातों से प्रभावित होकर उन्हें राजस्थान स्थित अपने महल खेतड़ी आने का आग्रह किया।

नरेंद्र ने उनके बातों का सम्मान करते हुए उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया और भारत का भ्रमण करते हुए 4 जून 1891 ई० को खतड़ी स्थित राजा अजीत सिंह के महल पहुंचे।

नरेंद्र दत्त के वहां पहुंचते ही राजा साहब ने उनके मान-सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ी। राजा के काफी आग्रह करने पर नरेंद्र दत्त कुछ दिनों तक वहां ठहरे।

इस बीच नरेंद्र दत्त और राजा अजीत सिंह के बीच घनिष्ठ दोस्ती हो गई। इसी समय अजीत सिंह ने उसकी सभी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए एवं उनके योग्यताओं का विश्लेषण करते हुए उनका नाम नरेंद्र नाथ दत्त से विवेकानंद रख दिया।

यह नाम दो शब्दों के मेल से बनी है : विवेक + आनंद; जिसमें विवेक का अर्थ बुद्धि तथा आनंद का अर्थ खुशियां होता है।

भारतीय प्रतिनिधि के रूप में विश्व धर्म सम्मेलन में विवेकानंद। Vivekananda at the World Religion Conference as the Indian Representative

अगर मैं अपने ख्याल से कहूं तो शायद स्वामी विवेकानंद के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि विश्व धर्म सम्मेलन को ही माना जाएगा। क्योंकि इस सम्मेलन में शामिल होने से पहले जो विवेकानंद सिर्फ भारतीयों के दिलों-दिमाग में थे, विश्व धर्म सम्मेलन के बाद अब वही विवेकानंद (About Swami Vivekananda in Hindi) पूरी दुनिया के दिलो-दिमाग में बसने लगे।

इस धर्म सम्मेलन  के माध्यम से ही भारतीय संस्कृति, भारतीयों का आस्था, विश्वास और भारत की इस धरती का ताकत उन्होंने पूरे विश्व को सुनाया।

अब कल तक जिस भारत को नीच दृष्टि से देखा जाता था, आज कितनों को उनके सामने सर उठाने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन कहा जाता है, इस दुनिया में अक्सर अच्छे लोगों की कदर नहीं होती। कुछ ऐसा ही विवेकानंद के साथ हुआ है।

जब विवेकानंद को विश्व धर्म सम्मेलन के बारे में पता चला तो उन्होंने चाहा कि वे भी इसमें शामिल होने का अवसर प्राप्त करें। परंतु जब बात खर्च की आई तो इतने रुपए भी उसके पास नहीं थे, कि वे विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल हो सके।

दूसरी बात यह भी थी, कि उन्हें आमंत्रित भी नहीं किया गया था।

इन सब बातों का ध्यान में रखते हुए पुनः उन्होंने अपने इस इच्छा को दबा दिए और अपने मित्र अजीत सिंह से मिलने पुनः 1893 मे खेतड़ी पहुंच गए। वहां कुछ दिन वे ठहरे। इसी दौरान बातों-बातों की सिलसिला में उन्होंने अजीत सिंह के सामने विश्व धर्म सम्मेलन में जाने की इच्छा जाहिर किए और उसके इतनी-सी बात को सुनते हुए, अजीत सिंह ने बिना किसी संकोच के उनसे कहे कि आपके मार्ग व्यय के पुण्य कार्य का सौभाग्य खेतड़ी के इस धरती को ही प्राप्त करने दीजिए।

काफी शालीनता के साथ उन्होंने स्वामी जी के लिए संपूर्ण धनराशि की व्यवस्था किया। ताकि वे भी विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल हो सके।

सारी बंदोबस्त हो जाने के बाद जब विवेकानंद (Biography of Swami Vivekananda in Hindi) अमेरिका के शहर शिकागो पहुंचे तो वहां एक और समस्या पैदा हो गई, जो थी विश्व धर्म सम्मेलन का तारीख का आगे बढ़ना।

इन बातों से तो उनकी चिंता और भी बढ़ गई। क्योंकि उसके पास ज्यादा दिनों की खर्च नहीं थी और अभी वे वापस लौटना भी नहीं चाहते थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने वहीं ठहरने का निर्णय लिया।

परंतु यह बात भी थी, कि एक साधारण भारतीय का अमेरिका के शिकागो जैसे शहर में रहना मुश्किल था। लेकिन हमारे भारतीय समाज में कहते हैं, कि जब इंसान अपने हर प्रयास में असफल हो जाता है, तो ऊपर वाले अर्थात भगवान उनकी हर समस्या का समाधान करते हैं।

ऐसा ही हुआ विवेकानंद के साथ और शिकागो के एक प्रोफेसर से उनकी मुलाकात हुई और उन्होंने कुछ दिन विवेकानंद को अपने घर में रहने को कहा।

तब 11 सितंबर 1893 में शिकागो धर्म सम्मेलन का दिन आया। जहां विवेकानंद (Biography of Swami Vivekananda in Hindi) भी भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपना पदार्पण किया।

भारतीय प्रतिनिधि के रूप में विवेकानंद का नाम सुनते ही सबों ने अपना टोंड का शुरू कर दिया। भला पराधीन भारत के लोग क्या संदेश देगा? हम यूरोपियन को।

उनके कपड़ों का मजाक उड़ाया गया। स्थिति यहां तक आ गई थी, कि उन्हें परिषद में प्रवेश पाना भी कठिन हो गया था। किसी ने सोचा भी नहीं था कि ये भाषण भी देंगे। काफी प्रयत्न के बाद उन्हें परिषद में प्रवेश का अनुमति दिया गया।

तब तक पश्चिमी सभ्यता के सभी विद्वान लोग अपनी-अपनी भाषण दे चुके थे। तब एक अमेरिकी प्रोफेसर ने पूर्व से आने वालों को भी मौका देने की बात कही और तब पूर्वी सभ्यता से आने वाले विवेकानंद पर सबका ध्यान गया और जैसे ही विवेकानंद मंच पर सभा को संबोधित करने पहुंचे। उन्होंने अपने भारतीय हिंदू धर्म की भव्यता, अपने संस्कृति और अपने गुरु का स्मरण करते हुए, सभा को संबोधित करते हुए कहा “मेरे अमेरिकी बहनों और भाइयों ।”

उनके लफ़्ज़ों से इतनी बात सुनते ही सभा में बैठे करीब 7000 प्रतिनिधियों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया। उन्होंने सभा में उपस्थित सभी लोगों को मानव की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया।

सन् 1896 तक वे अमेरिका में रहे। स्वामी जी ने कहा था, कि :

“मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूं , ना तो संत या दार्शनिक ही हूं। मैं तो एक भारतीय गरीब हूँ, और गरीबों का अनन्य भक्त हूं। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूंगा, जिसका हृदय गरीबों के लिए तड़पता हो।”

विश्व धर्म सम्मेलन से लौटने के बाद पुनः 1897 में स्वामी जी खेतड़ी नरेश अजीत सिंह से मिलने पहुंचे। जो उनकी आखिरी मुलाकात थी। जब स्वामी जी ने अपने व्याख्यान से अमेरिका में विजय परचम फहराया तो सबसे बड़ी प्रसन्नता राजा अजीत सिंह को हुई।

इस प्रकार ब्रिटिश हुकूमत के दौर में जब हमारा भारत गुलामी के जंजीर में जकड़ी हुई थी। उस समय विश्व के मंच पर भारत को पहचान दिलाने का श्रेय विवेकानंद (Swami Vivekananda in Hindi) नामक इस शख्स को दिया जाता है।

भारतीयों की मसीहा के रूप में विवेकानंद

स्वामी जी नारियों के प्रति उदारता की भावना रखते हुए। हमेशा लोगों को नारियों का सम्मान करने की सलाह देते थे। उनका मानना था, कि अगर किसी राष्ट्र में नारियों का सम्मान नहीं होता है, तो उस राष्ट्र की उन्नति शीघ्र ही संदिग्ध रह जाएगी।

इस प्रकार, उन्होंने भारतीय समाज में प्रचलित कुप्रथाओ को समाप्त कर और नारियों के उत्थान के लिए हर संभव प्रयास किए। स्वामी जी ने शिक्षा को अनिवार्य मानते हुए, निम्न वर्ग और नारियों की दशा सुधारने के लिए शिक्षा को अहमियत दी।

स्वामी विवेकानंद जी एक राष्ट्रवादी थे। “लीग ऑफ नेशन्स” के जन्म से भी पहले 1897 में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और कानूनों का आवाहन किया। जिससे राष्ट्रों के बीच समन्वय स्थापित हो सका।

इस प्रकार महात्मा गांधी, खुदीराम बोस, सुभाष चंद्र बोस, रविंद्र नाथ टैगोर जैसे महापुरुषों ने स्वामी विवेकानंद को भारतीय आत्मा को जागृत करने वाला और भारतीय राष्ट्रवाद के मसीहा के रूप में देखा और सार्वभौमिकता के मसीहा रूप में स्वामी जी उभर कर सामने आए।

स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित मठ और मिशन

स्वामी जी 1 मई 1897 में कोलकाता में अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण मिशन और गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना 9 दिसंबर 1898 को किए, जो आज भारत में सफलतापूर्वक चल रही है।

उन्होंने कई ग्रंथों की भी रचना किए। जिसने युवा वर्ग के लोगों को एक नयी राह दिखाई। जिसका असर सदियों तक जनमानस पर छाया रहेगा। उनके प्रमुख ग्रंथ थे : ज्ञानयोग, राजयोग, योग इत्यादि।

स्वामी जी की मृत्यु। Death of Swami Vivekananda in Hindi

यह सर्वव्यापी सत्य है, कि जो इस संसार रूपी सागर में जन्म लिया है, उनका मरना भी निश्चित है। वैसे भी महान आत्मा ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहती है, वे अपने काम से आती है, और काम पूरा होते ही इस पंचतंत्र में कब विलीन हो जाती हैं, पता ही नहीं चलता।

इसी प्रकार, भारत के इस धरती पर एक महान आत्मा के रूप में अवतरित विवेकानंद (Swami Vivekananda in Hindi) संपूर्ण विश्व में नीच दृष्टि से देखा जाने वाला इस धरती की ताकत पूरे विश्व को दिखाएं और चल बसे।

वे दमा और शकरा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक बीमारियों घिर चुके थे। विवेकानंद ने कहा भी था, कि ये बीमारियां उसे 40 वर्ष की आयु पार नहीं करने देगी। परंतु उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी अपनी दिनचर्या का पालन किए।

प्रतिदिन की भांति सुबह जल्दी उठ स्नान आदि करके बेलूर मठ के पूजा घर में पूजा करने के बाद नियमानुसार 2 घंटे तक उन्होंने योग भी किया।

तत्पश्चात अपने शिष्यों को वेद, संस्कृत और योग साधना के बारे में पढ़ाया और बाद में रामकृष्ण मठ में वैदिक महाविद्यालय बनाने पर विचार विमर्श किए।

तत्पश्चात शाम के करीब 7:00 बजे रामकृष्ण मठ स्थित अपने कमरे में जाकर ध्यान मग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर 40 वर्ष की आयु में अपने जीवन का अंतिम सांस लिए। वह दिन थी 4 जुलाई 1902 की।

बाद में उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी यादों को चिरस्मरणीय बनाने के लिए वहां एक मंदिर का निर्माण करवाया और पूरे विश्व में स्वामी विवेकानंद (About Swami Vivekananda in Hindi) तथा उसके गुरु रामकृष्ण परमहंस के संदेशों को फैलाने के लिए विश्व के विभिन्न जगहों पर करीब 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना करवाया।

आज संपूर्ण भारतवर्ष उनके जन्मदिन को प्रत्येक वर्ष 12 फरवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस (National Youth Day) के रूप में मनाते हैं।

स्वामी विवेकानंद की संक्षिप्त जीवनी। Brief Biography of Swami Vivekananda in Hindi

Biography of Swami Vivekananda

  • बाल्यावस्था का नाम : नरेंद्र विश्वनाथ दत्त
  • जन्म तिथि : 12 फरवरी 1863 (मकर संक्राति)
  • जन्म स्थान : गौरेमोहन कोलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
  • माता का नाम : भुवनेश्वरी देवी (गृहणी होने के साथ-साथ एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला)
  • पिता का नाम : विश्वनाथ दत्त (कोलकाता, उच्च न्यायालय में एक चर्चित एवं कुशल वकील)
  • दादा का नाम : दुर्गाचरण दत्ता (एक संत होने के साथ-साथ संस्कृत एवं फारसी के प्रसिद्ध विद्वान)
  • भाई-बहन : 9
  • स्वामी जी की शिक्षा-दीक्षा : सन् 1881 ई० मे ललित कला की डिग्री, सन् 1884 ई० मे कला स्नातक की डिग्री, अर्थात 1884 ई० B.A की परीक्षा उत्तीर्ण हुए।
  • गुरु : रामकृष्ण परमहंस (काली के उपासक होने के साथ-साथ दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी)
  • स्वामी जी की अपने गुरु से पहली मुलाकात : सन् 1881 ई० दक्षिणेश्वर (कोलकाता)
  • गुरू की मृत्यु : 6 August 1886
  • गहरे मित्र : अजीत सिंह (राजस्थान के माउंट आबू में खेतड़ी के राजा)
  • स्वामी की अपने मित्र से पहली मुलाकात : 4 June 1891
  • उनके द्वारा स्थापित महत्वपूर्ण मठ और मिशन : 1 May 1891 ई० में रामकृष्ण मीशन (कोलकात्ता), 9 December 1898 ई० मे वेदांत सिटी की स्थापना (न्यूयॉर्क), शांति आश्रम (कैलोफोर्निया), अध्दैत आश्रम (भारत अल्मोड़ा के पास)
  • स्वामी जी की प्रमुख ग्रंथ:- भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, मेरे गुरु, ज्ञानयोग आदि।
  • विश्व धर्म सम्मेलन मे स्वामी जी : 11 September 1893 शिकांगो (अमेरिका)
  • स्वामी जी की दूसरी विदेश यात्रा : 20 June 1899
  • धर्म : हिन्दू
  • नागरिकता : भारतीय
  • स्वामी जी की मृत्यु : 4 July 1902
  • मृत्यु स्थान : बेलूर, पश्चिम बंगाल (भारत)

स्वामी जी की प्रमुख कथन/कोट्स। Quotes of Swami Vivekananda in Hindi

1. उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो।


2. खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।


3. बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।


4. दिल और दिमाग की टकराव मे दिल की सुनो।


5. चिंतन करो चिंता नहीं, नए विचार को जन्म दो।

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